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महिला आरक्षण को जातिगत आधार पर बांटना उचित नहीं : डॉ. चंद्रकला पाडिया से खास बातचीत

महिला आरक्षण विधेयक का पारित होना भारतीय महिलाओं के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। यह विधेयक भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देगा और उन्हें सशक्त बनाएगा। इस विधेयक के पारित होने से भारतीय समाज में लैंगिक समानता को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है।


इंडियन इंस्टीट्यूट आफ एडवांस स्टडीज की पहली महिला अध्यक्ष एवं काशी हिंदू विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र की प्रोफेसर रहीं डाक्टर चन्द्रकला पाडिया मानती हैं कि भारतीय ज्ञान परंपरा में महिलाओं का सम्मान किया जाता रहा है। वे पुरुषों के समकक्ष तो रही ही हैं, कहीं-कहीं उनका स्थान पुरुषों से भी उच्च है।

प्रस्तुत है चन्द्रकला पाडिया से सुधा यादव की बातचीत के प्रमुख अंश-


प्रश्नः भारतीय राजनीति और समाज में महिला आरक्षण का क्या प्रभाव होगा ?

जवाब : देखिए, मेरा मानना है कि इसका भारतीय राजनीति और समाज में महिला आरक्षण का सकारात्मक प्रभाव।पड़ेगा।महिला आरक्षण से महिलाओं का सम्मान बढ़ेगा।उन्हें सिर्फ गृहस्थी चलाने वाली और बच्चा पैदा करने वाली मशीन के रूप में नहीं देखा जाएगा। महिलाओं में शिक्षा, योग्यता और आर्थिक स्वावलंबन की होड़ बढ़ेगी। स्त्रीजन्य गुणों का महत्व बढ़ेगा।

राजनीतिक आरक्षण को सामाजिक न्याय की आवश्यक शर्त मानता है। पश्चिम के चिंतकों ने भावनाओं से अधिक बुद्धि को महत्व दिया, लेकिन भारतीय चिंतन परंपरा में भावनाओं का महत्व अधिक है। हमारे ऋषियों ने स्त्रियों को भावनाओं का भंडार माना क्योंकि भावनाओं से ही संस्कृति और सभ्यता का निर्माण होता है।

महिला आरक्षण से सामाजिक संवेदनशीलता बढ़ेगी और सामाजिक सहयोग एवं सद्भाव का विकास होगा। भारतीय सेना से लेकर सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। गांव-गांव में परिवार की आर्थिकी में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। सरकार की महिलाओं के सशक्तीकरण की नीतियों से भी महिलाओं को सशक्त होने में मदद मिली है।

 प्रश्न: सभी महिलाओं के सामने एक जैसी चुनौतियां नहीं होती हैं। क्या महिला आरक्षण को जातिगत आधार पर बांटने से इन चुनौतियों को दूर करने में मदद मिलेगी?

जवाब : मेरी दृष्टि में महिला आरक्षण को जातियों में बांटना कहीं से भी उचित नहीं है। शताब्दियों के शोषण और मूल अधिकारों से वंचित रहने के कारण महिलाएं स्वयं में एक उपेक्षित वर्ग बन गई हैं, जिनकी पीठ पर बैठ कर पुरुष वर्ग ने अपना इतिहास लिखा है। यदि सभी जातियों और वर्गों की महिलाएं एकत्रित नहीं होंगी तो औरतों का सशक्तीकरण अपने वास्तविक स्वरूप में संभव नहीं हो सकेगा। महिलाएं आपसी मतभेदों में उलझ कर रह जाएंगी और एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लग जाएंगी। सभी जातियों और वर्गों की महिलाओं को एक प्रकार के अधिकार एवं सुरक्षा मिले तभी राजनीति में उनकी वास्तविक भागीदारी हो सकेगी। देश बदला है और समय के दबाव में यह परिवर्तन हुआ है। इस आरक्षण से नारी सम्मान का नया युग आकार लेगा। वर्ष 1996 में जब पहली बार एचडी देवगौड़ा सरकार ने लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक पेश किया था तो मुझे याद है कुछ दलों के नेता अपने सांसदों को सदन में जाने से रोक रहे थे। ऐसा वे इसलिए कर रहे थे ताकि सदन का कोरम ही पूरा न हो सके। अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में भी यह बिल पारित नहीं हो सका। डाक्टर मनमोहन सिंह की सरकार में 2008 में इसे राज्यसभा में पेश किया गया, जहां दो साल बाद यह पारित तो हुआ लेकिन लोकसभा में लालू यादव और मुलायम सिंह जैसे नेताओं के प्रखर विरोध के कारण अटका रहा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्ष में नारी शक्ति वंदन अधिनियम को पारित कराने में सफलता पाई है। यह प्रसन्नता की बात है कि सभी दलों का समवेत समर्थन मिला है। ओबीसी महिलाओं को इसमें अलग से आरक्षण की मांग का स्वर अभी कायम है, पर यह सुझाव के स्तर पर है, अब जिद के स्तर पर नहीं। लेकिन यह सब अनायास नहीं है। अब हर राजनीतिक दल बखूबी समझते हैं कि समाज में वोट देने की प्रवृति और क्षमता आधी आबादी के स्तर पर बढ़ी है। स्वनिर्णय से महिलाएं वोट करने लगी हैं। इस बड़े वर्ग के हक और सम्मान की अनदेखी बहुत दिनों तक नहीं की जा सकती है। बिल में ओबीसी कोटा नहीं होने के प्रतिवाद में हंगामा करने वाले दल भी वर्तमान रूप में महिला आरक्षण बिल का समर्थन कर रहे हैं। मेरा मानना है कि महिला आरक्षण को जातिगत आधार पर बांटने से इसका वास्तविक लक्ष्य यानी सशक्तीकरण का भाव कमजोर हो जाएगा या खो जाएगा। महिला किसी जाति-वर्ग की हो, उनके सामने एक जैसी चुनौतियां विद्यमान हैं। मुझे महादेवी वर्मा का संस्मरण याद है कि जब उन्हें अपने काम के लिए बहुत ही मामूली रकम मिली थी और उनके अंदर इसी रुपये ने 'मैं भी कमा सकती हूं ' का आत्मविश्वास भरा था।


प्रश्नः वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति में क्या परिवर्तन हुए? इस पर आपके क्या विचार हैं?


जवाब: वैदिक काल में, महिलाओं को शिक्षा, धार्मिक क्रियाओं में भाग लेने और पुरुषों के समान अधिकारों का आनंद लेने का अधिकार था। अपाला, मैत्रेयी और गार्गी जैसी विदुषी महिलाओं का नाम इतिहास में दर्ज है। हालांकि, उत्तर वैदिक काल में, महिलाओं की स्थिति में गिरावट आई। सैद्धांतिक रूप से, उनके अधिकार वैदिक काल के समान ही थे, लेकिन व्यवहार में, उन्हें कई प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा। उदाहरण के लिए, उन्हें शिक्षा और वेद मंत्रों के उच्चारण से अलग-थलग कर दिया गया।

मध्य युग में, मुस्लिम शासन के दौरान, महिलाओं की स्थिति में और गिरावट आई। धर्म के नाम पर, सती प्रथा, बालिका हत्या, बाल विवाह और पर्दा प्रथा जैसे कुप्रथाओं का प्रचलन हुआ। इन कुप्रथाओं का उद्देश्य महिलाओं की सुरक्षा करना था, लेकिन वास्तव में, इनसे उनकी स्थिति और खराब हो गई।

उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में, समाज सुधारकों के प्रयासों से महिलाओं की स्थिति में सुधार होने लगा। राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, स्वामी दयानंद सरस्वती, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, केशवचंद्र सेन, स्वामी विवेकानंद और उनके शिष्यों ने महिला शिक्षा, समानता और अधिकारों के लिए अभियान चलाया।

आज, भारत में महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। वे शिक्षा, व्यवसाय और समाज में नेतृत्व की भूमिकाओं में भाग ले रही हैं। हालाँकि, अभी भी कुछ चुनौतियाँ हैं, जैसे कि लैंगिक भेदभाव, हिंसा और शिक्षा और रोजगार में असमानता।

प्रश्न: सांसद पति और विधायक पति की परंपरा पंचायती राज से विधानसभा और लोकसभा में भी फैलने की संभावना है?

जवाब : पंचायती राज में सांसद पति और विधायक पति की परंपरा बढ़ने की आशंका निर्मूल है। इसका मुख्य कारण यह है कि पंचायती राज ने महिलाओं को राजनीति में सक्रिय होने का अवसर प्रदान किया है। पंचायती राज में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से उन्हें राजनीति में अनुभव और आत्मविश्वास मिल रहा है। इस अनुभव और आत्मविश्वास के साथ महिलाएं विधानसभा और लोकसभा में चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो रही हैं।

इसके अलावा, भारत में कई महिलाएं बिना अपने पति की मदद के राजनीति में सफल हुई हैं। ये महिलाएं अपने दम पर संसद और विधानसभा तक पहुंची हैं। इन महिलाओं के उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि महिलाएं राजनीति में पुरुषों से कम नहीं हैं।

वर्तमान में दुनिया की संसदों में महिलाओं की संख्या बढ़ रही है। 23 देशों में 40 प्रतिशत से अधिक सांसद महिलाएं हैं। यह बदलाव दिखाता है कि दुनिया भर में महिलाएं राजनीति में अधिक सक्रिय हो रही हैं।

इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि पंचायती राज में सांसद पति और विधायक पति की परंपरा बढ़ने की आशंका निर्मूल है। महिलाएं अपनी मेहनत और लगन से राजनीति में सफल हो रही हैं।

प्रश्नः संविधान सभा में महिला सदस्यों ने महिला आरक्षण का विरोध क्यों किया था? इसके बाद क्या बदलाव हुए कि महिला आरक्षण की आवश्यकता महसूस हुई?

जवाब : संविधान सभा में महिला आरक्षण के प्रस्ताव का विरोध करने वाली महिला सदस्यों का मानना था कि महिलाएं अपनी योग्यता के आधार पर राजनीति में भाग लेना चाहती हैं, न कि लिंग के आधार पर आरक्षण के कारण। उनका मानना था कि आरक्षण से आई महिलाओं को व्यवस्थापिका में समानता का दर्जा नहीं मिलेगा।

सरोजिनी नायडू ने भी इस विचार का समर्थन किया था। उन्होंने कहा था कि भारतीय नारी आंदोलन पश्चिमी नारीवादी आंदोलन से अलग है। भारतीय नारी आंदोलन समानता पर नहीं, बल्कि पूरकता पर आधारित है।

इस प्रकार, संविधान सभा में महिला आरक्षण के प्रस्ताव का विरोध करने वाली महिला सदस्यों का मानना था कि महिलाओं को राजनीति में समान रूप से प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए, न कि केवल आरक्षण के कारण।


प्रश्न: क्या महिला आरक्षण पुरुष राजनेताओं को अपने परिवार के सदस्यों को राजनीति में आगे बढ़ाने का अवसर प्रदान करेगा?

महिला आरक्षण के तहत सीटें आरक्षित होने से पुरुष राजनेता अपनी पत्नियों या परिवार की अन्य महिलाओं को आगे बढ़ाने का प्रयास कर सकते हैं। यह एक वास्तविक चिंता है, लेकिन यह बिना आरक्षण के भी संभव है। उदाहरण के लिए, कई उदाहरण हैं जब नेताओं ने अपनी कुर्सी पर खतरा महसूस किया तो उन्होंने अपनी पत्नी या परिवार की अन्य महिला सदस्य को आगे बढ़ाया। यहां तक ​​कि मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पर बैठाया गया। इन मामलों में, आरक्षण का कोई संबंध नहीं है। यह केवल राजनेताओं के स्वार्थी उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया जाता है।आरक्षण का मूल उद्देश्य राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देना है। दो-चार लोगों के विपरीत राह पर चल लेने से यह उद्देश्य 

प्रभावित नहीं होगा। हालांकि, यह विचारणीय है कि महिलाओं को भी समयनिष्ठ तरीके से ही आरक्षण की सीढ़ी दी जानी चाहिए। हमेशा के लिए इस प्रकार का सहारा किसी को सशक्त नहीं कर सकता है।


सुधा यादव (हिन्दी पत्रकारिता)

भारतीय जन संचार संस्थान ,नई दिल्ली

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SUDHA

Journalism Student, Part time Artist, Content creater